इस संसार में भौतिक विकास की
चाह हर मनुष्य को होती है। सभी को भारी धन संपदा या वैभव नहीं मिल पाता-ऐसे में
कहा जा सकता है कि यह भाग्य की महिमा तो यह भी माना जा सकता है कि जिन मनुष्यों पर
माया की कृपा अधिक नहीं है या अल्प है वह उनके कर्म का ही परिणाम है। भौतिक आधार पर मनुष्य के तीन वर्ग माने गये हैं-उच्च,
मध्यम और निम्न। यही आधार उसके आचरण और
व्यवहार से भी तय होता है। निम्न कोटि का व्यक्ति धन संपदा अधिक होने पर अत्यंत
अहंकार पूर्ण व्यवहार करने लगता है जबकि मध्यम वर्ग का व्यक्ति अपने आप में डूबकर
सामान्य लोगों से कट जाता है। उच्च वर्ग
का व्यक्ति अपने धन का उचित प्रयोग करने के साथ ही जहां नम्र होता है वहीं समय समय
पर वह समाज के लिये दान या सहायता के रूप में व्यय भी करता है। जहां तक धन संपदा होने पर समाज में सम्मान का
प्रश्न है तो लोग दिखावटी रूप से सभी का करते हैं मगर हार्दिक प्रेम उनका केवल
उन्हीं धनपतियों को देते हैं जो वास्तव में समाज के लिये हितकर होते हैं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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किं तेन हेमगिरिणा रजतद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च
तरवस्तरवस्त एव।
मन्यामहं मलयमेव यदाश्रयेण कङ्कोलनिन्वकुटजा अपि
चन्दनाः स्युः।।
हिन्दी में
भावार्थ-सुमेरु पर्वत सोने से भरा है है मगर उस पर स्थित पेड़ पौ़द्यों को कोई लाभ
नहीं क्योंकि उनका मूल रूप नहीं बदलता।
उससे अच्छा तो मलय पर्वत है जहां के सारे पेड़ पौद्ये उसके सानिध्य में
चंदनमय हो जाते हैं।
आमतौर से देखा गया है कि
अध्यात्मिक दृष्टि से निम्म कोटि के व्यक्ति धन आने पर इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं
कि जहां तहां अपनी प्रशंसा स्वयं करते हैं। कई तो ऐसे भी होते हैं कि अपने दान तथा
त्याग का झूठा प्रचार करते हैं। इन लोगों से परिवार के अलावा अन्य कोई लाभान्वित नहीं
होता इसलिये हार्दिक प्रेम का उन्हें अनुभव नहीं होता इसलिये न वह किसी से करते
हैं न कोई उनको देता है-वह तो अपने अंदर ही यह भ्रम पाल लेते हैं कि हमारे पास धन
है तो समाज वैसे ही सम्मान करता है। यही स्थिति मध्यम वर्ग की भी होती है। इसके विपरीत उच्च कोटि वाला धनिक यह जानता है
कि जब तक वह किसी के लिये लाभदायक अवसर पैदा नहीं करेगा तब तक समाज से सम्मान पाने
की ही नहीं वरन् धन की सार्थकता देखने की
भी उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती।
व्यक्ति वही महान या बड़ा कहलाता है जो अपने तथा परिवार से प्रथक जब बाह्य
रूप में स्थित होकर परोपकार का काम करे।
कहने का अभिप्राय यह है कि इस भौतिक संसार
में जब तक हम किसी को प्रत्यक्ष लाभ नहीं दे सकते तब तक किसी प्रकार का प्रेम या
सम्मान पाने की आशा करना व्यर्थ है। दूसरे शब्दों में यह कहें कि हम जब किसी
व्यक्ति से सम्मान या प्रेम की आशा करें तो यह भी विचार करना चाहिये कि हम उसके
लिये काम के हैं या नहीं।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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