2014 में लोकसभा के आम चुनाव होने तय हैं। हमारे
देश में सामान्यतः राष्ट्रीय, प्रांतीय
तथा नगरीय प्रतिनिधि सभाओं को चुनाव पांच वर्ष में एक बार अवश्य होते हैं। प्रचार माध्यमों के लिये राष्ट्रीय और प्रांतीय
चुनाव हमेशा ही आकर्षक प्रचार तथा बहस की सामग्री प्रदान करने वाले होते हैं जिनसे
उनको अपने विज्ञापन के बीच प्रसारित कर अपने सामाजिक दायित्व निभाते दिखने की
सुविधा मिलती है। टीवी चैनलों और अखबारों का वर्तमान लोकतंत्र में इतना जबरदस्त
प्रभाव है कि चुनावी राजनीति में सक्रिय हर राजनेता अपनी छवि धवल बनाये रखने के
लिये इनके प्रसारणों तथा प्रकाशनों पर ध्यान रखता है। इनके प्रकाशन राजनीतिक संगठनों पर इस कदर
प्रभाव डालते हैं कि उनमें अनेक प्रवक्ता इसलिये रखे जाते हैं ताकि समय समय पर
अनेक चैनलों पर एक साथ चल रही बहस में उनकी हिस्सेदारी रहे। जब सामाजिक मसले पर बहस हो रही हो तो अनेक बार
ऐसा भी होता है कि एक समाज सेवक एक चैनल पर चल रही बहस खत्म कर दूसरे पर अवतरित
होता है क्योंकि उनके पास ऐसा अनेक प्रवक्ताओं वाला कोई संगठन नहीं होता।
भारतीय राजनीति पर इन प्रचार संगठनों का
प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। प्रत्यक्ष तो प्रकट है पर
अप्रत्यक्ष का अनुमान ही किया जा सकता है।
अनेक बार ऐसी गतिविधियां और बयान सामने आते हैं कि लगता है कि उनका
प्रायोजित निर्माण हुआ हो ताकि प्रचार माध्यमों को उन पर सनसनी भरे समाचार तथा
संवेदनशील बहस का अवसर मिल सके। खासतौर से
सामाजिक विषयों पर अक्सर कहा जाता है कि अमुक आदमी ने मीडिया में नाम पाने के लिये
उलूलजुलूल बयान दिया है। उस समय शंकायें उठती हैं कि कहीं वह प्रायोजित सामाजिक
घटना यह बयान तो नहीं है। जिस तरह हमारे देश में समाज को महिला, बालक, वृद्ध, बीमार तथा भूखों के वर्ग में बांटकर टुकड़ा
टुकड़ा अभियान चलाकर प्रचार पाने की रीति चली है उसी तरह ही प्रचार माध्यम भी
प्रतिदिन विषय बदलकर बहसों का रूप बदलते हैं।
जब कुछ भी न हो तो महिला विषयों पर चर्चा हो जाती है। राजनीति से ज्यादा
समाज के विषय पर कही गयी सनसनीपूर्ण बात ज्यादा इन प्रचार माध्यमों को आकर्षक लगती
है। ऐसे में महिलाओं को लेकर कोई फालतु
बयान उनके लिये चिंता का विषय दिखाने के लिये होता है जबकि वह विज्ञापनों के बीच
समाचार तथा बहस के प्रसारण में रुचिकर हो जाता है।
महिलाओं पर कई विवादास्पद बयान आते हैं पर अगर
किसी प्रतिष्ठत व्यक्ति का हो तो उस पर सार्वजनिक चर्चा होना ही है। ऐसे में यह समझ में नही आता कि उस व्यक्ति ने
अपना बयान प्रचार पाने के लिये दिया या प्रचार माध्यमों के प्रबंधकों ने अपने
प्रयास से दिलवाया। अभी हाल ही में एक नये
दल के उदय हुआ जिसके कर्णधार तक यह मानते हैं कि प्रचार माध्यमों ने उनको इतनी
ऊंचाई तक पहुंचाया है। स्वयं प्रचार
माध्यमों ने अपने सर्वेक्षण में इस बात को पाया कि 42 फीसदी लोग उस दल के उदय में समाचारों और बहसों का
केंद्र बिन्दू में अधिक समय तक रहना मानते हैं।
ऐसा लगता है कि नियमित राजनीतिक परिदृश्य से उकताये प्रचार प्रबंधकों को लग
रहा था कि फिल्मी कहानी की तरह प्रसारित उनके समाचार तथा बहसों में कोई तीसरा
पात्र भी होना चािहये। जिस तरह कभी भारतीय सिने जगत में बहुनायक वाद था उसी शैली
में प्रचार प्रबंधक यह चाहते रहेे होंगे कि उनके प्रतिदिन फिल्म या धारावाहिक की
तरह प्रसारित होने वाले समाचार और बहसों में कभी कभी ऐसे पात्र उभरने चाहिये जो
कभी कॉमेडी तो कभी अतिगंभीर वातावरण बनाने मंें सहायक हों। यह स्थिति वैसे ही जैसे कि फिल्म में मनोरंजन
के साथ ही कभी हास्य तो कभी अतिगंभीर संदेशवाहक दृश्य संयोजित किया जाता है। जिस तरह वह दल प्रचार माध्यमों ने उभारा तो एक
समय ऐसा लगा कि वह उसे देशव्यापी विेजेता बना देंगे मगर अंततः उन्हें अपना
अर्थशास्त्र भी देखना ही था इसलिये धीरे धीरे अब वह उसी दल के प्रति नकारात्मक
प्रचार भी करने लगते हैं। उसका अस्तित्व
बना रहे ताकि भविष्य में काम इसलिये उसका सकारात्मक पक्ष भी रख रहे हैं। जिस तरह
यह दल पहले चल रहा था उससे लगा कि यह पूरे देश में छा जायेगा पर अब इसकी संभावना
नगण्य रह गया है। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रचार माध्यमों ने एक बहुत बड़ी शक्ति हासिल कर ली है।
हम इस शक्ति से ईर्ष्या नहीं करते वरन् चाहते
हैं कि इसका वह भारतीय समाज के निर्माण में अपनी
लगायें। यह कार्य केवल अध्यात्मिक टीवी चैनलों या लोगों के भरोसे करने की
बजाय वह आम आदमी की आवाज को अपने पर्दे पर स्थान देकर ही किया जा सकता है। अभी प्रचार माध्यमों ने कुछ प्रतिभाशाली बालकों
का प्रदर्शन दिखाया जो काफी प्रशंसनीय था।
आम नागरिक में सामूहिक आत्मविश्वास भरने के लिये यह आवश्यक है कि उसकी आवाज
और शब्दों को प्रचार माध्यम स्थान दें।
हमने देखा है कि प्रतिष्ठित लोगों के ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग की सामान्य बातों को भी यह लोग
प्रचारित करते हैं। एक तरह से यह वातावरण बनाया गया है कि सामाजिक अंतर्जालीय
जनसंपर्क पर केवल बड़े ही लोग प्रभावशाली ढंग से सक्रिय हैं। सामान्य जनों की
सक्रियता का कोई अर्थ नहीं है। हमारा मानना है कि टीवी चैनलों और समाचार पत्रों
में अगर सामान्य जनों की आवाज को उनका नाम देकर प्रकाशित किया जाये तो समाज का
आत्मविश्वास बढ़ेगा। एक बात याद रखें लिखने
या बोलने की कला प्रतिष्ठित लोगों में नहीं होती वरन् सामान्य जन भी माहिर होते
हैं पर चूंकि उन्हें कोई स्थान नहीं देता इसलिये समाज में प्रचार माध्यमों को लेकर
भी निराशा व्याप्त है।
बहरहाल आने वाले लोकसभा चुनावों के निकट आते
आते अनेक गंभीर तो अनेक हास्य जनक समाचार सामने आयेंगे। जहां राजनीतिक संगठन आने वाले चुनावों की
तैयारी में व्यस्त हैं तो प्रचार प्रबंधक भी इस तरह की योजना बन रहे होंगे कि इस महाकुंभ
में की अर्थनदी में स्वयं भी नहा लें। हम जैसे आम इंसान और फोकटिया लेखक की भूमिका
एक दर्शक की तरह होती है। यह अलग बात है कि हिन्दी भाषा तथा टंकण का ज्ञान होने के
साथ ही कंप्यूटर चलाने का अभ्यास हमें अपनी अभिव्यक्ति को अंतराष्ट्रीय रूप देने
का अवसर मिल जाता है। इस अंतर्राष्ट्रीय रूप को लेकर हम खुशफहमी नहीं पालते और
गलतफहमी नहीं पालें-यह तक हमने इसलिये दिया क्योंकि हमारे ब्लॉग बताते हैं कि
उन्हें अनेक देशों में पढ़ा जाता है हालांकि पाठ तथा पाठकों की संख्या कोई अधिक
नहीं होती।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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