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Friday, October 31, 2008

दीवाली के बम का नामकरण-व्यंग्य कविता

पटाखा कंपनी का मालिक
पहुंचा अपने गुरु के पास और बोला
"महाराज, मैंने दिवाली पर
बच्चों के लिए बनाया है
एक नए किस्म का बम
उसका कोई जोरदार नाम बताएं
आपकी श्रीमुख से नामकरण
मुझे हमेशा ही फलता है
कृपा करें ताकि मेरे पटाखे खूब कमायें"

सुनकर मुस्कराए गुरूजी और बोले
"कैसी बात करता है
फुलझडी का नामकरण पूछा होता तो ठीक था
क्या नकली बम का नाम पूछते हो
कैसी पहेली बूझते हो
इतने सारे असली बम फूट जाते हैं
कभी उनकी कंपनी के नाम
भला कभी सुन पाते हैं
लोग ही रख देते हैं
भाषा,जाति,और धर्म के आधार पर उनके नाम
परमाणु बन भी अब अपनी असली नाम से नहीं
बल्कि बनाने वाले दिखाते हैं अपना गौरव
इसलिए धर्म के नाम पर पहचाना जाता है
जिसके पास है उसकी कौम का नाम पाता है
यह अलग बात है
जब असली बम फटता है
मरते हैं बेकसूर लोग
तब जिसकी कौम का नाम आये वह शर्माए
उसका सीना फूलता हैं जिसका न आये
आदमी जी रहा है अपने कौम के भ्रम में
तुम्हारा नकली बन भी यही करेगा
जो जलाएगा उसकी कौम का बनेगा
अपनी जुबान को व्यर्थ नहीं कर सकते
लोग रख देते हैं खुद ही अपने हिसाब से उसका
हम भला क्यों तुम्हें बताएं"

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Wednesday, October 29, 2008

आग को आंखें नहीं होती-व्यंग्य कविता

अपने घर की रौशनी जमाने को
दिखाने के लिये
दूसरों के बुझा देते हैं वह चिराग
नहीं जानते वह
मददगार होते
जब तक प्यार से इस्तेमाल करो
भड़क उठे तो किसी के दोस्त नहीं होते

पानी, हवा और आग
अंधेरा कर दूसरे के घरों में
वह मुस्कराते हैं
अहंकार दिखाते हैं
पर नहीं जानते
जब तक समय साथ है
आदमी बलवान लगता है
पर जब लगता है पलटने तो
हवायें गर्म हो जाती र्हैं
पानी सामने ही हवा हो जाता है
तब मुश्किलों में पल पल होते
.................................
जब लगाते हो
कहीं तुम नफरत की आग
तब अपनी खैर पर भी यकीन नहीं करना
उस आग को आंखें नहीं होती
फैलती है जब चारों तरफ
ले सकती हैं तुम्हारे घर को भी चपेट में
जब बहेगा उसके अंगारों का झरना

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Monday, October 27, 2008

दीपावली पर आश्रम रेटिंग में ऊंचा स्थान पायेगा-हास्य कविता

चेला पहुंचा गुरु के पास और बोला
‘गुरु जी इस बार भी क्या
दीपावली पर अपने आश्रम पर
मेला लग पायेगा
मंदी बहुत है और हमारे अनेक भक्त परेशान है
लोग तो बहुत आयेंगे
पर कोई मालदार आसामी कहां आयेगा
होली पर तो आमंत्रण पत्र भेजकर
आपके दर्शन करने पर
स्वर्ग की प्राप्ति होने का किया था दावा
अब क्या किया जायेगा‘

सुनकर बोले गुरुजी
‘पिछले कार्ड में ही होली शब्द की जगह
दीपावली का आमंत्रण पत्र छपवा लो
भेज दो अलग से एक दक्षिण की सूची
जिसमें मांगो पिटे हुए शेयरों का चढ़ावा
उनके करने पर
स्वर्ग में भी विशिष्ट कक्ष मिलने का कर दिखावा
पहले पता करना कि
हमारे भक्तों में कौन तंग हैं
किसके साथ मंदी का संग है
फिर उनके ही शेयरोें की मांग करना
या फिर हमारे हवाले से
अखबारों में कर देना उनके उनके
शेयरों के भाव बढ़ने की भविष्यवाणी
जिससे बढ़ जाये उनके दाम की कहानी
खुश होकर बाजार के पिटे हुए मोहरे भी आयेंगे
भले ही हो मंदी वह चढ़ावा लायेंगे
बाद में जो बाजार का होगा सो होगा
दीपावली पर अपना आश्रम रेटिंग में
तो ऊंचा स्थान पायेगा

...............................................

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Saturday, October 25, 2008

कुछ होती कहानी तो कुछ अफ़साना बन जाता है-हिन्दी शायरी

अपने ख्यालों की दुनिया
कुछ लोग यूं बसा लेते हैं
कि आँखों से देखते हैं जो सामने
उसे गौर से देखने की बजाय अपने
नजरिये जैसा ही समझकर
उस पर अपने ख्याल बना लेते हैं
अक्सर धोखा होता है
ऐसे ही उनके साथ
इसका अहसास होता है तब
जब गर्दन अपनी कहीं फंसा लेते हैं
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आग से आग नहीं बुझती
पर लोहे से लोहा तो कट ही जाता है
कांटे से काँटा निकलता है
जहर से जहर ही कटता है
पर नफरत से नफ़रत नहीं कटती
प्यार से प्यार बढ़ता है
समय और हालतों से उसूल बदल जाते हैं
ओ किताब पढ़कर जमाने को
समझाने वालों
लिखा हुआ है किताब में
हमेशा सच नहीं होता
कुछ होती है कहानी तो
कुछ अफ़साना बन जाता है

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Monday, October 20, 2008

आम आदमी को ख़ास जमात में बैठाकर नहीं चमकाएंगे-आलेख

बहुत मुश्किल हो गया। अंतर्जाल पर ब्लाग पर ऐसी कठिनाई आयेगी यह कभी नहीं सोचा था। मैं कंप्यूटर पर बैठते ही अपने ब्लाग/पत्रिकाओं की दुर्दशा का अध्ययन कर लिखने का विचार करता हूं। सब ठीक ठाक होता है अगर सही राह पर चलें पर अगर कहीं यह विचार आता है कि किसी का ब्लाग पढ़ो तो पता लगता है कि जिस विषय पर सोचा था उसकी जगह कोई दूसरा आ जाता है। हालांकि अगर किसी की कविता पढ़ो तो कोई बात नहीं क्योंकि उस पर हम भी अपनी कविता लिखकर टिप्पणी कर दोहरा लाभ उठा लेते हैं। एक तो टिप्पणी लिख ली और अपना पाठ भी लिख लिया। मगर कोई आलेख हुआ तो?

एक के बाद एक विचार आते जाते हैं और अगर आलेख जोरदार हुआ तो विचार इतने आ जाते हैं कि पहले सोचा गया विषय हल्का लगने लगता है। ऐसा न हो अगर टिप्पणी लिखने का विचार नहीं आये। होता यह है कि जब किसी आलेख या कविता को पढ़ता हूं तो एक आम पाठक होता हूं पर टिप्पणी लिखने का विचार उसे वहां से भगा देता है। यानि या तो कोई ब्लाग न पढ़ूं या टिप्पणी लिखने का विचार ही छोड़ दूं। दोनों ही काम मुश्किल है।

मगर ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ कि कोई आलेख पूर्व में सोचे गये विषय को ध्वस्त कर गया। यह उस पर टिप्पणी लिखने के विचार से ही हुआ।

पहले सोचा था कि आज बैंक हड़ताल पर लिखूंगा। बैंक कर्मचारी अक्सर हड़ताल कर देते हैं। भारत मे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बहुत महत्व रखते हैं। जब इन सार्वजनिक बैंकों का पूरे कारोबार पर एकाधिकार था तब उनकी हड़ताल से देश की जनता बहुत परेशान होती थी। यही कारण था कि सरकारें उनकी मांगे मान लेती थी। अब तो निजी क्षेत्रों में बैंक आ गये हैं इसलिये इनका एकाधिकार नहीं रहा पर सरकारी सरंक्षण के कारण आज भी उनकी विश्वसनीयता है और आज भी छोटे बचतकर्ता इनके सहारे हैं और बाजार में उनका महत्व आज भी यथावत है। ऐसे में बैंक कर्मचारी अपनी हड़ताल से देश की आर्थिक चाल को अस्त व्यस्त कर देते हैं। मगर अब उनको अब कई ऐसी बातें समझनी होंगी जो उनको कोई कहता नहीं है।
वह अपनी वेतन वृद्धि तथा अन्य मांगों के लिये आंदोलन करें पर हड़ताल जैसे हथियार से दूर ही रहें तो शायद देश के लिये अच्छा हो। अभी हाल ही में बैंक कर्मचारियों ने हड़ताल की थी तो उसमें उनकी एक मांग ‘कृपा नियुक्ति’ ( किसी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति से पूर्व मृत्यु हो जाने पर उसके आश्रित को नौकरी देने की सुविधा) भी शामिल थी। आखिर यह नौबत क्यों आयी? इससे पहले ऐसी मांग क्यों नहीं रखी गयी थी।

इसका कारण यह था कि तब बैंकों में नियमित भर्तियां हो रहीं थीं और कर्मचारियों को भरोसा था कि उनके बच्चे यहीं नहीं तो वहां लग जायेंगे। अब ऐसा होना बंद हो गया क्योंकि देश में धीरे धीरे निजीकरण बढ़ रहा है और अनेक निजी बैंक उनके ग्राहक छीनते जा रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ग्राहक कर्मचारियों के रूखे और असहयोगी व्यवहार के कारण ही इन निजी बैंकों की तरफ आकर्षित हुआ है। इस पर ऐसी हड़तालें उनको और अधिक निजी बैॅकों की तरफ जाने को प्रेरित करेंगी। शायद कुछ बैंक कर्मचारी इस आलेख को पढ़कर नाराज हो जायें पर सच्चाई को जानकर अगर वह आत्म मंथन करें तो वह न स्वयं अपनी आने वाली पीढि़यों बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को नई दिशा दे सकते हैं। उनको अपने आंदोलन के लिये जापानी तरीका इस्तेमाल करना चाहिये जिसमें कर्मचारी अधिक काम करने लगते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को यह बात समझ लेना चाहिये कि उनके प्रति जो आम आदमी का रुझान है वह सरकारी संरक्षण से है न कि उनके कामकाज के कारण। लोग उनके व्यवहार से अत्यंत नाराज हैं। जरा वह इन शिकायतों पर गौर फरमायें
1.ए.टी.एम. से नकली नोट निकल रहे हैं।
2.ए.टी.एम. से ऐसे कटे फटे नोट निकल रहे हैं जिन्हें वह कभी स्वयं ग्राहक से नहीं लेते।
3.अपने यहां आने वाले अपढ़ बचतकर्ताओं पर कभी तरस नहीं खाते और उनको फार्म आदि भरने पर मदद नहीं करते न ही पूछने पर कोई सार्थक जानकारी देते हैं।
और भी ढेर सारी शिकायतें हैं जिससे लगता है कि उनकी कार्यक्षमता संदिग्ध है। बैंक कर्मचारी कहेंगे कि यह तो सभी सरकारी विभागों में हैं पर यह कर्मचारी अन्य विभागों से अपने ‘अधिक श्रेष्ठ और प्रमाणिक’ होने को दावा भी करते हैं और समाज में सम्मान पाते है। एक बार दूसरी भी है कि ऐसा अनेक उदाहरण है कि एक ही दिन भर्ती हुए अन्य विभाग के कर्मचारी और बैंक में भर्ती हुए कर्मचारी के बीच समान पद पर डेढ़ से ढाई गुने तक वेतन में अंतर है। अभी छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बावजूद भी इन बैंक कर्मचारियों को वेतन उनसे अधिक रहने वाला है। दूसरे विभागों के कर्मचारी पदोन्नति कभी छोड़ने के लिये तैयार नहीं होते जबकि बैंक कर्मचारी अपने शहर में बने रहने के लिये उसे लेने की भी नहीं सोचते-अपवाद स्वरूप कुछ लोग लेते हैं। इसका कारण यह है कि व्यवसायिक जगत से संबंध होने के नाते वह अपने अलग से भी व्यवसाय कर सकते हैं।

पहले तो कोई बात नहीं थी पर अब निजीकरण के कारण बैंक कर्मचारियों को इस पर विचार करना होगा कि कहीं उनके शीर्षस्थ लोग निजी बैंकों की तरफ लोगों को और अधिक आकर्षित करने के लिये जाने और अनजाने रूप से हड़ताल का नारा तो नहीं दे रहे। यह आवश्यक नहीं हैं कि वह षड़यंत्र रच रहे हों पर एक बात तय है कि आम आदमी की सहानुभूति उनके साथ नहीं है और उनकी हड़ताल गुस्सा भर देगी और वह आर्थिक मंदी में भविष्य में डांवाडोल होने की संभावना वाले निजी बैंकों की तरफ जा सकता है।

इस आर्थिक मंदी में भारत की आर्थिक सुरक्षा के प्रति लोग आश्वस्त हैं तो केवल इसलिये कि सार्वजनिक बैंकों को सरकारी संरक्षण मिला हुआ है। अमेरिका में निजी बैंक डांवाडोल हो रहे हैं ऐसे में भारत के सार्वजनिक बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों को सोचना होगा। वह इसका जिम्मा आम आदमी पर न डालें वह उनसे नाराज होकर निजी बैंको पर अपना भविष्य का दांव लगा सकता है उसकी हानि होगी वह निपट लेगा पर बैंक कर्मचारी तो समझदार हैं इसलिये उनको अब उनको ऐसी हड़तालों से दूर रहना होगा। इसकी बजाय वह आम आदमी से और अधिक सौहार्द पूर्ण व्यवहार करने लगें। आम आदमी से मधुर भाषा में बात करने के साथ कम और अपढ़ बचतकर्ताओं को फार्म भरने के अलावा उनको अधिक बचत वाली योजनाओं में पैसा लगाने के लिये प्रेरित करें। एसा व्यवहार करें कि निजी क्षेत्र में उनको मिलने की आशा भी न रहे। बैंक के प्रति जो विश्वास है वह तो सरकारी संरक्षण के कारण बना ही हुआ है। बैंक कर्मचारी अमेरिका और जापान की बातें करते हैं अब उनको अपने आंदोलन के लिये यही तरीका अपनाना चाहिये-अधिक से अधिक काम कर।

जहां तक काम के बोझ का प्रश्न है तो अधिकतर बैंक कर्मचारी अखबार पढ़ने के साथ टीवी चैनल भी देखते होंगे जिसमें ऐसे समाचार आते हैं कि कमोबेश सभी विभागों से ऐसी शिकायतें आती हैं। उन पर चर्चा एक अलग विषय है पर ए.टी.एम. की वजह से सार्वजनिक बैंकों के कर्मचारियों को राहत जितनी मिली है उसे भी सभी जानते हैं। लोग छोटी मोटी धनराशि वहीं से निकालना पसंद करते हैं। आशय यही है कि आम आदमी के प्रति उनको अपने अंदर एक खास आदमी होने का भाव लाना होगा क्योंकि वह और उनके बैंक उन्हीं के भरोसे रहे हैं।

यह सब एक तरीके से लिखना था पर विचारों का क्रम ध्वस्त हो गया। हुआ यूं कि एक प्रतिष्ठित ब्लाग लेखिका ने अपने ब्लाग पर एक आलेख प्रकाशित किया था। वह अंतर्जाल पर हिंदी को स्थापित करने के लिये प्रतिबद्ध दिखती हैं और पिछले चार पांच दिन से कुछ नहीं लिखा तो वह अपनी टिप्पणी लिख गयी थीं। संभवतः वह याद दिला रहीं थीं कि मुझे लिखते रहना चाहिये। उनके प्रकाशित आलेख में महान लेखक और मेरठ लेखन की चर्चा थी। उसमेें लिखा गया था कि अगर मेरठ के प्रकाशकों ने चालू लेखन कर पैसा कमाया पर अगर वह सार्थक लेखन को प्रकाशित करते तो इससे भी अधिक कमाते। उसमें यह भी लिखा था कि अगर यह लोग चाहते तो देश में महान उपन्यासकार उनको तीन महीने में जोरदार उपन्यास लिख कर देते।

बात सही है पर शायद देश के मूर्धन्य लेखकों ने यह बात कभी नहीं लिखी कि यहां के धनपति कमाना चाहते हैं पर किसी दूसरे को प्रतिष्ठित कर नहीं बल्कि उसे अपना गुलाम बनाकर। वह कम कमायेंगे पर किसी आम आदमी को खास लोगों की जमात में बैठने के लिये नहीं चमकायेंगे। ऐसा नहीं है कि अंतर्जाल पर इसके प्रयास नहीं होंगे पर ब्लाग स्पाट और वर्ड प्रेस के यह ब्लाग शायद ऐसा नहीं करने देंगे। उसमें एक बात सच लिखी थी कि देश के लेखक अभी नयी सोच के साथ आगे नहीं बढ़ रहे। सच मानिये तो मैं एक बात लिखता हूं कि आने वाला समय अंतर्जाल पर ब्लाग (बेवसाईटों का नहीं) का है। हिंदी की प्रगति यहां धीमी है पर याद रखिये जिसकी गति धीमी होती है उसका जीवन अधिक होता है। अब देखिये शेयर बाजार और म्यूचल फंडों की खरीद फरोख्त ने तेजी पकड़ी और जब रुकी तो गर्त में आकर गिरी। अपने लेखक होने के जितने मजे यहां ले सकता हूं ले रहा हूं। फ्लाप है और एक भी पैसा नहीं कमा रहा पर एक दृष्टा की तरह सब देख रहा हूं।

हां एक बात याद आयी। उस आलेख में लिखा था कि अनेक लेखकों और विद्वानों ने अंधविश्वासों पर जमकर प्रहार किये है और इसकी सबसे अधिक जरूरत है। यह बात स्वीकार करने योग्य हैं। बात हिंदू धर्म की करें। एक बात तय है कि हमारे धर्म में अनेक प्रकार के अंधविश्वास हैं पर उन पर प्रहार करने के लिये जरूरी है कि पहले यह समझना आवश्यक है कि उनका अध्यात्मिक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। अध्यात्मिक ज्ञान और धर्म तो पृथक विषय हैं। जिन लोगों ने अंधविश्वासों पर प्रहार किये तो कोई नई बात नहीं की क्योंकि यह संत शिरोमणि कबीरदास जी और कविवर रहीम पहले ही कर चुके हैं पर वह दोनों भक्ति के चरम शिखर पर रहे यही कारण है कि आज भी आज लोगों के लोकप्रिय हैं। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से शिक्षित विद्वान और लेखक अंधविश्वासों पर जमकर प्रहार करते हैं पर उनसे परे हटाने की ताकत जिस अध्यात्मिक ज्ञान में उसको वह धारण नहीं कर सके यही कारण है कि वह प्रभावी नहीं रहे। यह अध्यात्मिक ज्ञान निष्काम भक्ति से प्राप्त होता है या योग साधना के साथ ही श्रीगीता के अध्ययन से। हां, उस तत्व ज्ञान को जाने बिना कोई किसी को अपने ज्ञान से प्रभावित नहीं कर सकता।
वह तत्व ज्ञान क्या है? इस पर फिर कभी। वैसे इस विषय पर लिखता रहता हूं।

बहरहाल आलेख बहुत अच्छा लगा। यही कारण है कि किसी एक दिशा में स्थिर नहीं रह सका। अगर कोई सोच रहा हो कि आखिर मैंने टिप्पणी लिखने की सोची ही क्यों? कम से कम तसल्ली से पढ़कर फिर कभी लिखता। क्या करता? कई बार ऐसा होता है कि दूसरे का अच्छा लिखा जब बहुत प्रभावित करता है तो अंतर्मन का लेखक कुछ लिखने के लालायित हो उठता है। वह सही दिशा में भी लिखता है पर अगर पहले से ही कुछ सोचे बैठा हो तो फिर ऐसा भी होता है। हां अगर मैंने अपना लिखने के बाद ही वह आलेख पढ़ा होता तो शायद यह हालत नहीं होती और टिप्पणी लिखने के बाद विषय अपने दिमाग में संजो कर रख लेता।
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Sunday, October 19, 2008

दोबारा जिंदा नहीं हो सकती ईमानदारी-हास्य क्षणिकाएं


नकली घी,खोवा और दूध से
हो रहा है बाज़ार गर्म
दीपावली का जश्न मनाने से पहले
अमृत के नाम पर विष पी जाने के
खौफ से छिद्र हो रहा है मर्म
बिना मिठाई के दीपावली क्या मजा क्या
पर पेट में जो भर दे विकार
ऐसे पेडे भी खाकर बीमार पड़ना क्या
कि जश्न मनाकर जोशीले तेवर
डाक्टर के सख्त सुई से पड़ जाएँ नर्म
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ईमानदारी की कसम खाकर
वह बेचते हैं मिलावटी सामान
क्योंकि अब तो वह मर मिट गयी है इस दुनिया से
चाहे जितनी क़समें खा लो उसके नाम की
दोबारा जिंदा नहीं हो सकती ईमानदारी
कितनी भी बेईमानी करने पर
पकड़ने के लिए किसी आदमी के कान

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Monday, October 13, 2008

थ्योरी खूब सुनी सेवा की,देखा नहीं कभी प्रेक्टिकल-हास्य कविता

दादा-दादी से अलग रहने वाले
बच्चे को उसके पिता सिखा रहे थे
'बेटा , हमारे बुजुर्गों के कहे अनुसार
सदैव अपने से बडे लोगों का
तुम सम्मान करना
उनका कहना है कि हर
बच्चे को चाहिये अपने
मां-बाप की सेवा करना
उसी का होता है जीवन सफ़ल'
बच्चे ने उत्सुकता वश पूछा
'हम दादा-दादी के साथ क्यों नहीं रह्ते
क्या आप उनकी सेवा करते हो
क्या आपका जीवन भी है सफ़ल'
उसके पिता हो गये खामोश
उतर गयी शकल

बडा होकर वह ऐक गुरु के पास गया
शरण के साथ मांगा भक्ति के लिये ज्ञान
मांगी वह शक्ति जिससे
मिटे मन का मैल और अभिमान
गुरुजी ने कहा
'सदा अपने गुरु की आज्ञा मानो
और जो कहैं उसे ब्रह्मज्ञान ही जानो
सदा अपने माता-पिता के सेवा करो
तभी तुम्हारा जीवन होगा सफ़ल'
उसने पूछा
'गुरुजी आपके गुरु और माता-पिता
कहां है और क्या आप भी उनकी सेवा करते हैं'
गुरुजी हो गये बहुत नाराज्
कहीं उनके मन पर भी गिरी थी
उसके शब्दों की गाज्
गुससे में बोले-
ऐसे सवाल करोगे तो
कभी भी तुम्हें नहीं आयेगी अकल'

वह बन गया बहुत बडा डाक्टर
करने लगा गरीबों की भी मुफ़्त सेवा
समाज सेवा में कमाया उसने नाम
गरीबों की भीड जुटती थी उसके
घर में सुबह और शाम
कीचड में खिल गया जैसे कमल

ऐक गरीब बेटे की मां की उसने
अपने घर पर रखकर सेवा की
उसने दी उसे दुआ और कहा
'बेटे जरूर तुम अपने मां-बाप की भी
सेवा बहुत करते होगे
तभी है तुम्हारा जीवन है सफ़ल
डाक्टर ने फ़ीकी हंसी हंसते हुए कहा-
'बस यही नहीं समझा अपने जीवन में
नर्सरी से शिक्षा प्राप्त करना शुरू की
ले आया डिग्री साइंस आफ़ मेडिकल्
मां-बाप की सेवा की थ्योरी खूब सुनीं
पर कभी न देखा उसका प्रेक्टिकल
------- --------------------------------

<,blockquote>यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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Friday, October 10, 2008

आदमी और जमात-हिंदी शायरी

परिवार के बिखरने से भयाक्रांत
इंसान करता है जंग हमेशा
अपनी हालातों से
पैसे से खरीद लेता है कोई
घर की सारी खुशियां
जहां नहीं है
वहां काम चलाता है बातों से

सभी का है अलग अलग दर्द
पर जमाने में भला करने वाले सौदागर
अकेले इंसान की मुश्किल
दूर करने से कतराते
संग हो जाते भीड़ बनी जमातों से

इंसान बोलता है पर
जमातें जब भीड़ बन जाती है
उसमें वह भेड़ बन जाता है
उस भीड़ में सुनना जरूरी है
पर बोलना मना है
रौशनी पर सोचने की है इजाजत
पर आंखों को देखना हैं वहां
जहां अंधेरा घना है
अक्ल का इस्तेमाल करने पर है बंदिश
चलना है उस पर ख्वाब पर
जो केवल सोचने के लिये बना है

इसलिये बंद कर दिया है
इंसानों अपनी जमातों के लिए बाहर आना
इतने धोखे खाये हैं कि
रौशनी का कितना भी भरोसा दिलाओ
उसे यकीन नहीं आता
पंसद है रहना उसे अपनी अंधियारी रातों से

......................................
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Monday, October 6, 2008

अल्फाज़ का भाव भी बाज़ार में नीचे ऊपर चलता है-हिन्दी शायरी

उनकी आँखों में प्यार का दरिया
हमेशा बहता लगता है
क्योंकि बाज़ार के खिलाडी हैं
जहां इन्हीं अदाओं पर सौदागर का
काम चलता है

बाज़ार में दोस्ती होती नहीं
की जाती हैं फायदे के लिए
चले तो कई बरसों तक
प्यार और दोस्ती का सफ़र
यूं ख़त्म हो जाता है
जहां टूटा फायदे और मतलब का क्रम
वही सामने आ जाता है रिश्तों का भ्रम
जज्बातों का व्यापार ऐसे ही
सदियों से चलता है

चेहरे पर नाकाब सभी पहने
जरूरी नहीं हैं
अब तो जुबान से भी यह काम चलता है
अपने दिल की बात किसी को कहने से
कोई फायदा नहीं
बेच सकता है उसे सुनने वाला और कहीं
दोस्ती के व्यापारियों का क्या
सस्ते में प्यार बेच दें
अपने दिल की घाव क्या दिखाएँ उनको
दर्द का भाव तो बाज़ार में और महँगा चलता है

क्या अपनी जुबान से कहें
समय का इन्तजार ही है
आने से पहले सब खामोशी से सहें
अल्फाज़ हमारे अभी सस्ते ही सही
पर यह बाज़ार का खेल है
जिसमें भाव कभी नीचे तो कभी ऊपर चलता है
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Wednesday, October 1, 2008

घायल और हमदर्द-लघुकथा

वह हादसे में घायल होकर सड़क पर गिर पड़ा ह था। उसके चारों और लोग आकर खड़े हो गये। वह चिल्लाया-‘मेरी मदद करो। मुझे इलाज के लिये कहीं ले चलो।’
लोग उसकी आवाज सुन रहे थे पर बुतों की तरह खड़े थे। उनमें चार अक्लमंद भी थे। एक ने कहा-‘पहले तो तुम अपना नाम बताओ ताकि धर्म,जाति और भाषा से तुम्हारी पहचान हो जाये।

वह बोला-‘मुझे इस समय कुछ याद आ नहीं आ रहा है। मैं तो केवल एक घायल व्यक्ति हूं और अपने होश खोता जा रहा हूं। मुझे मदद की जरूरत है।
एक अक्लमंद बोला-‘नहीं! तुम्हारो साथ जो हादसा हुआ है वह केवल तुम्हारा मामला नहीं है। यह एक राष्ट्रीय मसला है और इस पर बहस तभी हो पायेगी जब तुम्हारी पहचान होगी। तुम्हारा संकट अकेले तुम्हारा नहीं बल्कि तुम्हारे धर्म, जाति और भाषा का संकट भी है और तुम्हें मदद का मतलब है कि तुम्हारे समाज की मदद करना। इसके लिये तुम्हारी पहचान होना जरूरी है।’

यह सुनते हुए उस घायल व्यक्ति की आंखें बंद हो गयीं। कुछ लोगों ने उसकी तरफ मदद के लिये हाथ बढ़ाने का प्रयास किया तो उनमें एक अक्लमंद ने कहा-‘नहीं, जब तक यह अपना नाम नहीं बताता तब तक इसकी मदद करो। हम मदद करें पर यह तो पता लगे कि किस धर्म,जाति और भाषा की मदद कर रहे हैं। ऐसी मदद से क्या फायदा जो किसी व्यक्ति की होती लगे पर उसके समाज की नहीं।

उसी भीड़ को चीरता हुए एक व्यक्ति आगे आया और उस घायल के पास गया और बोला-‘चलो घायल आदमी! मैं तुम्हें अपनी गाड़ी में बिठाकर अस्पताल लिये चलता हूं।’
उस घायल ने आंखें बंद किये हुए ही उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा और उठ खड़ा हुआ। अक्लमंद ने कहा-‘तुम इस घायल की मदद क्यों कर रहे हो? तुम कौन हो? क्या इसे जानते हो?’

उस आदमी ने कहा-‘मैं हमदर्द हूं। कभी मैं भी इसी तरह घायल हुआ था तब सारे अक्लमंद मूंह फेर कर चले गये थे पर तब कोई हमदर्द आया था जो कहीं इसी तरह घायल हुआ था। घायल की भाषा पीड़ा है और जाति उसकी मजबूरी। उसका धर्म सिर्फ कराहना है। इसका इलाज कराना मुझ जैसे हमदर्द के लिये पूजा की तरह है। अब हम दोनों की पहचान मत पूछना। घायल और हमदर्द का समाज एक ही होता है। आज जो घायल है वह कभी किसी का हमदर्द बनेगा यह तय है क्योंकि जिसने पीड़ा भोगी है वही हमदर्द बनता है। भलाई और मदद की कोई जाति नहीं होती जब कोई करने लगे तो समझो वह सौदागर है।’
ऐसा कहकर उसको चला गया।
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