बहुत मुश्किल हो गया। अंतर्जाल पर ब्लाग पर ऐसी कठिनाई आयेगी यह कभी नहीं सोचा था। मैं कंप्यूटर पर बैठते ही अपने ब्लाग/पत्रिकाओं की दुर्दशा का अध्ययन कर लिखने का विचार करता हूं। सब ठीक ठाक होता है अगर सही राह पर चलें पर अगर कहीं यह विचार आता है कि किसी का ब्लाग पढ़ो तो पता लगता है कि जिस विषय पर सोचा था उसकी जगह कोई दूसरा आ जाता है। हालांकि अगर किसी की कविता पढ़ो तो कोई बात नहीं क्योंकि उस पर हम भी अपनी कविता लिखकर टिप्पणी कर दोहरा लाभ उठा लेते हैं। एक तो टिप्पणी लिख ली और अपना पाठ भी लिख लिया। मगर कोई आलेख हुआ तो?
एक के बाद एक विचार आते जाते हैं और अगर आलेख जोरदार हुआ तो विचार इतने आ जाते हैं कि पहले सोचा गया विषय हल्का लगने लगता है। ऐसा न हो अगर टिप्पणी लिखने का विचार नहीं आये। होता यह है कि जब किसी आलेख या कविता को पढ़ता हूं तो एक आम पाठक होता हूं पर टिप्पणी लिखने का विचार उसे वहां से भगा देता है। यानि या तो कोई ब्लाग न पढ़ूं या टिप्पणी लिखने का विचार ही छोड़ दूं। दोनों ही काम मुश्किल है।
मगर ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ कि कोई आलेख पूर्व में सोचे गये विषय को ध्वस्त कर गया। यह उस पर टिप्पणी लिखने के विचार से ही हुआ।
पहले सोचा था कि आज बैंक हड़ताल पर लिखूंगा। बैंक कर्मचारी अक्सर हड़ताल कर देते हैं। भारत मे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बहुत महत्व रखते हैं। जब इन सार्वजनिक बैंकों का पूरे कारोबार पर एकाधिकार था तब उनकी हड़ताल से देश की जनता बहुत परेशान होती थी। यही कारण था कि सरकारें उनकी मांगे मान लेती थी। अब तो निजी क्षेत्रों में बैंक आ गये हैं इसलिये इनका एकाधिकार नहीं रहा पर सरकारी सरंक्षण के कारण आज भी उनकी विश्वसनीयता है और आज भी छोटे बचतकर्ता इनके सहारे हैं और बाजार में उनका महत्व आज भी यथावत है। ऐसे में बैंक कर्मचारी अपनी हड़ताल से देश की आर्थिक चाल को अस्त व्यस्त कर देते हैं। मगर अब उनको अब कई ऐसी बातें समझनी होंगी जो उनको कोई कहता नहीं है।
वह अपनी वेतन वृद्धि तथा अन्य मांगों के लिये आंदोलन करें पर हड़ताल जैसे हथियार से दूर ही रहें तो शायद देश के लिये अच्छा हो। अभी हाल ही में बैंक कर्मचारियों ने हड़ताल की थी तो उसमें उनकी एक मांग ‘कृपा नियुक्ति’ ( किसी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति से पूर्व मृत्यु हो जाने पर उसके आश्रित को नौकरी देने की सुविधा) भी शामिल थी। आखिर यह नौबत क्यों आयी? इससे पहले ऐसी मांग क्यों नहीं रखी गयी थी।
इसका कारण यह था कि तब बैंकों में नियमित भर्तियां हो रहीं थीं और कर्मचारियों को भरोसा था कि उनके बच्चे यहीं नहीं तो वहां लग जायेंगे। अब ऐसा होना बंद हो गया क्योंकि देश में धीरे धीरे निजीकरण बढ़ रहा है और अनेक निजी बैंक उनके ग्राहक छीनते जा रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ग्राहक कर्मचारियों के रूखे और असहयोगी व्यवहार के कारण ही इन निजी बैंकों की तरफ आकर्षित हुआ है। इस पर ऐसी हड़तालें उनको और अधिक निजी बैॅकों की तरफ जाने को प्रेरित करेंगी। शायद कुछ बैंक कर्मचारी इस आलेख को पढ़कर नाराज हो जायें पर सच्चाई को जानकर अगर वह आत्म मंथन करें तो वह न स्वयं अपनी आने वाली पीढि़यों बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को नई दिशा दे सकते हैं। उनको अपने आंदोलन के लिये जापानी तरीका इस्तेमाल करना चाहिये जिसमें कर्मचारी अधिक काम करने लगते हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को यह बात समझ लेना चाहिये कि उनके प्रति जो आम आदमी का रुझान है वह सरकारी संरक्षण से है न कि उनके कामकाज के कारण। लोग उनके व्यवहार से अत्यंत नाराज हैं। जरा वह इन शिकायतों पर गौर फरमायें
1.ए.टी.एम. से नकली नोट निकल रहे हैं।
2.ए.टी.एम. से ऐसे कटे फटे नोट निकल रहे हैं जिन्हें वह कभी स्वयं ग्राहक से नहीं लेते।
3.अपने यहां आने वाले अपढ़ बचतकर्ताओं पर कभी तरस नहीं खाते और उनको फार्म आदि भरने पर मदद नहीं करते न ही पूछने पर कोई सार्थक जानकारी देते हैं।
और भी ढेर सारी शिकायतें हैं जिससे लगता है कि उनकी कार्यक्षमता संदिग्ध है। बैंक कर्मचारी कहेंगे कि यह तो सभी सरकारी विभागों में हैं पर यह कर्मचारी अन्य विभागों से अपने ‘अधिक श्रेष्ठ और प्रमाणिक’ होने को दावा भी करते हैं और समाज में सम्मान पाते है। एक बार दूसरी भी है कि ऐसा अनेक उदाहरण है कि एक ही दिन भर्ती हुए अन्य विभाग के कर्मचारी और बैंक में भर्ती हुए कर्मचारी के बीच समान पद पर डेढ़ से ढाई गुने तक वेतन में अंतर है। अभी छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बावजूद भी इन बैंक कर्मचारियों को वेतन उनसे अधिक रहने वाला है। दूसरे विभागों के कर्मचारी पदोन्नति कभी छोड़ने के लिये तैयार नहीं होते जबकि बैंक कर्मचारी अपने शहर में बने रहने के लिये उसे लेने की भी नहीं सोचते-अपवाद स्वरूप कुछ लोग लेते हैं। इसका कारण यह है कि व्यवसायिक जगत से संबंध होने के नाते वह अपने अलग से भी व्यवसाय कर सकते हैं।
पहले तो कोई बात नहीं थी पर अब निजीकरण के कारण बैंक कर्मचारियों को इस पर विचार करना होगा कि कहीं उनके शीर्षस्थ लोग निजी बैंकों की तरफ लोगों को और अधिक आकर्षित करने के लिये जाने और अनजाने रूप से हड़ताल का नारा तो नहीं दे रहे। यह आवश्यक नहीं हैं कि वह षड़यंत्र रच रहे हों पर एक बात तय है कि आम आदमी की सहानुभूति उनके साथ नहीं है और उनकी हड़ताल गुस्सा भर देगी और वह आर्थिक मंदी में भविष्य में डांवाडोल होने की संभावना वाले निजी बैंकों की तरफ जा सकता है।
इस आर्थिक मंदी में भारत की आर्थिक सुरक्षा के प्रति लोग आश्वस्त हैं तो केवल इसलिये कि सार्वजनिक बैंकों को सरकारी संरक्षण मिला हुआ है। अमेरिका में निजी बैंक डांवाडोल हो रहे हैं ऐसे में भारत के सार्वजनिक बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों को सोचना होगा। वह इसका जिम्मा आम आदमी पर न डालें वह उनसे नाराज होकर निजी बैंको पर अपना भविष्य का दांव लगा सकता है उसकी हानि होगी वह निपट लेगा पर बैंक कर्मचारी तो समझदार हैं इसलिये उनको अब उनको ऐसी हड़तालों से दूर रहना होगा। इसकी बजाय वह आम आदमी से और अधिक सौहार्द पूर्ण व्यवहार करने लगें। आम आदमी से मधुर भाषा में बात करने के साथ कम और अपढ़ बचतकर्ताओं को फार्म भरने के अलावा उनको अधिक बचत वाली योजनाओं में पैसा लगाने के लिये प्रेरित करें। एसा व्यवहार करें कि निजी क्षेत्र में उनको मिलने की आशा भी न रहे। बैंक के प्रति जो विश्वास है वह तो सरकारी संरक्षण के कारण बना ही हुआ है। बैंक कर्मचारी अमेरिका और जापान की बातें करते हैं अब उनको अपने आंदोलन के लिये यही तरीका अपनाना चाहिये-अधिक से अधिक काम कर।
जहां तक काम के बोझ का प्रश्न है तो अधिकतर बैंक कर्मचारी अखबार पढ़ने के साथ टीवी चैनल भी देखते होंगे जिसमें ऐसे समाचार आते हैं कि कमोबेश सभी विभागों से ऐसी शिकायतें आती हैं। उन पर चर्चा एक अलग विषय है पर ए.टी.एम. की वजह से सार्वजनिक बैंकों के कर्मचारियों को राहत जितनी मिली है उसे भी सभी जानते हैं। लोग छोटी मोटी धनराशि वहीं से निकालना पसंद करते हैं। आशय यही है कि आम आदमी के प्रति उनको अपने अंदर एक खास आदमी होने का भाव लाना होगा क्योंकि वह और उनके बैंक उन्हीं के भरोसे रहे हैं।
यह सब एक तरीके से लिखना था पर विचारों का क्रम ध्वस्त हो गया। हुआ यूं कि एक प्रतिष्ठित ब्लाग लेखिका ने अपने ब्लाग पर एक आलेख प्रकाशित किया था। वह अंतर्जाल पर हिंदी को स्थापित करने के लिये प्रतिबद्ध दिखती हैं और पिछले चार पांच दिन से कुछ नहीं लिखा तो वह अपनी टिप्पणी लिख गयी थीं। संभवतः वह याद दिला रहीं थीं कि मुझे लिखते रहना चाहिये। उनके प्रकाशित आलेख में महान लेखक और मेरठ लेखन की चर्चा थी। उसमेें लिखा गया था कि अगर मेरठ के प्रकाशकों ने चालू लेखन कर पैसा कमाया पर अगर वह सार्थक लेखन को प्रकाशित करते तो इससे भी अधिक कमाते। उसमें यह भी लिखा था कि अगर यह लोग चाहते तो देश में महान उपन्यासकार उनको तीन महीने में जोरदार उपन्यास लिख कर देते।
बात सही है पर शायद देश के मूर्धन्य लेखकों ने यह बात कभी नहीं लिखी कि यहां के धनपति कमाना चाहते हैं पर किसी दूसरे को प्रतिष्ठित कर नहीं बल्कि उसे अपना गुलाम बनाकर। वह कम कमायेंगे पर किसी आम आदमी को खास लोगों की जमात में बैठने के लिये नहीं चमकायेंगे। ऐसा नहीं है कि अंतर्जाल पर इसके प्रयास नहीं होंगे पर ब्लाग स्पाट और वर्ड प्रेस के यह ब्लाग शायद ऐसा नहीं करने देंगे। उसमें एक बात सच लिखी थी कि देश के लेखक अभी नयी सोच के साथ आगे नहीं बढ़ रहे। सच मानिये तो मैं एक बात लिखता हूं कि आने वाला समय अंतर्जाल पर ब्लाग (बेवसाईटों का नहीं) का है। हिंदी की प्रगति यहां धीमी है पर याद रखिये जिसकी गति धीमी होती है उसका जीवन अधिक होता है। अब देखिये शेयर बाजार और म्यूचल फंडों की खरीद फरोख्त ने तेजी पकड़ी और जब रुकी तो गर्त में आकर गिरी। अपने लेखक होने के जितने मजे यहां ले सकता हूं ले रहा हूं। फ्लाप है और एक भी पैसा नहीं कमा रहा पर एक दृष्टा की तरह सब देख रहा हूं।
हां एक बात याद आयी। उस आलेख में लिखा था कि अनेक लेखकों और विद्वानों ने अंधविश्वासों पर जमकर प्रहार किये है और इसकी सबसे अधिक जरूरत है। यह बात स्वीकार करने योग्य हैं। बात हिंदू धर्म की करें। एक बात तय है कि हमारे धर्म में अनेक प्रकार के अंधविश्वास हैं पर उन पर प्रहार करने के लिये जरूरी है कि पहले यह समझना आवश्यक है कि उनका अध्यात्मिक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। अध्यात्मिक ज्ञान और धर्म तो पृथक विषय हैं। जिन लोगों ने अंधविश्वासों पर प्रहार किये तो कोई नई बात नहीं की क्योंकि यह संत शिरोमणि कबीरदास जी और कविवर रहीम पहले ही कर चुके हैं पर वह दोनों भक्ति के चरम शिखर पर रहे यही कारण है कि आज भी आज लोगों के लोकप्रिय हैं। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से शिक्षित विद्वान और लेखक अंधविश्वासों पर जमकर प्रहार करते हैं पर उनसे परे हटाने की ताकत जिस अध्यात्मिक ज्ञान में उसको वह धारण नहीं कर सके यही कारण है कि वह प्रभावी नहीं रहे। यह अध्यात्मिक ज्ञान निष्काम भक्ति से प्राप्त होता है या योग साधना के साथ ही श्रीगीता के अध्ययन से। हां, उस तत्व ज्ञान को जाने बिना कोई किसी को अपने ज्ञान से प्रभावित नहीं कर सकता।
वह तत्व ज्ञान क्या है? इस पर फिर कभी। वैसे इस विषय पर लिखता रहता हूं।
बहरहाल आलेख बहुत अच्छा लगा। यही कारण है कि किसी एक दिशा में स्थिर नहीं रह सका। अगर कोई सोच रहा हो कि आखिर मैंने टिप्पणी लिखने की सोची ही क्यों? कम से कम तसल्ली से पढ़कर फिर कभी लिखता। क्या करता? कई बार ऐसा होता है कि दूसरे का अच्छा लिखा जब बहुत प्रभावित करता है तो अंतर्मन का लेखक कुछ लिखने के लालायित हो उठता है। वह सही दिशा में भी लिखता है पर अगर पहले से ही कुछ सोचे बैठा हो तो फिर ऐसा भी होता है। हां अगर मैंने अपना लिखने के बाद ही वह आलेख पढ़ा होता तो शायद यह हालत नहीं होती और टिप्पणी लिखने के बाद विषय अपने दिमाग में संजो कर रख लेता।
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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