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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, January 21, 2008

शेर ही चल सकते हैं आगे-कविता साहित्य

भीड़ में सबको भेड़ की तरह
हांकने कि कोशिश में हैं सब
चलते जाते हैं आगे ही आगे
सीना तानकर अपना चलते
पर कोई शेर आ जाये सामने
तो कायरता का भाव उनमें जागे

भेड़ों की तरह भीड़ में चलते
अब में थक गया हूँ
सोचता हूँ कि अब बची जिन्दगी
शेरों की तरह लड़ते हुए गुजारूं
कर देते हैं वह शिकार होने के लिए भेड़ों को आगे
सियारों का ही खेल चल रहा है सब जगह
जो कभी सामने नहीं आते
भेडो को शिकार के लिए सामने लाते
खुद चढ़ जाते अट्टालिकाओं भागे-भागे

मन नहीं चाहता किसी को
अपने पंजों से आहत करूं
पर फिर सोचता हूँ कि
मैं किसी की भेड़ भी क्यों बनूँ
चल पडा हूँ
जिन्दगी की उस दौर में
जहाँ शेर ही चल सकते हैं आगे
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